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जाति आधारित जनगणना

हाल ही में केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में एक हलफनामा/शपथ-पत्र दाखिल कर दावा किया है कि पिछड़े वर्गों की जाति आधारित जनगणना प्रशासनिक रूप से कठिन और दुष्कर है।

  • सरकार का यह अभिकथन महाराष्ट्र राज्य द्वारा 2021 की जनगणना के दौरान राज्य में पिछड़े वर्गों की जाति के आँकड़ों को एकत्र करने के संदर्भ में दाखिल किये गए एक रिट याचिका के प्रत्युत्तर में आया है।

प्रमुख बिंदु

  • जाति आधारित जनगणना के विरुद्ध सरकार का रुख: 
    • अनुपयोगी डेटा : केंद्र ने तर्क दिया कि जब स्वतंत्रता पूर्व अवधि में जातियों की जनगणना की गई थी, तब भी डेटा "पूर्णता और सटीकता" के संबंध में प्रभावित हुआ था। 
      • इसमें कहा गया है कि 2011 की सामाजिक-आर्थिक और जाति जनगणना (SECC) में दर्ज जाति आधारित आँकड़े/डेटा आधिकारिक उद्देश्यों के लिये ‘अनुपयोगी’ हैं क्योंकि उनमें तकनीकी खामियाँ अधिक हैं।
    • आदर्श नीति उपकरण का न होना: सरकार ने कहा कि जातिवार जनगणना की नीति 1951 में छोड़ दी गई थी।
      • इसके अलावा केंद्र ने स्पष्ट किया कि जनसंख्या जनगणना "आदर्श साधन नहीं है क्योंकि अधिकांश लोग अपनी जाति को छिपाने के उद्देश्य से जनगणना में अपना पंजीकरण नहीं कराते हैं।
      • यह जनगणना की "बुनियादी अखंडता/समग्रता" से समझौता कर सकता है।
    • प्रशासनिक रूप से जटिलतम: इसके अतिरिक्त सरकार ने माना कि 2021 की जनगणना में जातिवार गणना किये जाने में अब काफी देर हो चुकी है।
      • जनगणना की योजना और तैयारी लगभग चार वर्ष पहले शुरू हुई थी तथा जनगणना 2021 की तैयारियाँ लगभग पूरी हो चुकी हैं।


  • SECC के पक्ष में तर्क:
    • जाति-आधारित सकारात्मक कार्रवाई कार्यक्रमों या कल्याणकारी योजनाओं के संरक्षण के लिये सांख्यिकीय औचित्य स्थापित करना उपयोगी होगा।
      • यह तब एक कानूनी अनिवार्यता हो सकती है, जब अदालतें आरक्षण के मौज़ूदा स्तरों का समर्थन करने के लिये 'मात्रात्मक डेटा' की मांग करती हैं।
    • देश में एक व्यापक प्रयास के ज़रिये सभी परिवारों की जातिगत स्थिति की गणना से गरीब परिवारों की पहचान और गरीबी-उन्मूलन कार्यक्रमों को लागू करने में मदद मिलेगी।

जनगणना, SECC और दोनों में अंतर:

  • जनगणना:
    • भारत में जनगणना की शुरुआत औपनिवेशिक शासन के दौरान वर्ष 1881 में हुई।
    • जनगणना का आयोजन सरकार, नीति निर्माताओं, शिक्षाविदों और अन्य लोगों द्वारा भारतीय जनसंख्या से संबंधित आँकड़े  प्राप्त करने, संसाधनों तक पहुँचने, सामाजिक परिवर्तन, परिसीमन से संबंधित आँकड़े आदि का उपयोग करने के लिये किया जाता है।
    • हालाँकि 1940 के दशक की शुरुआत में वर्ष 1941 की जनगणना के लिये भारत के जनगणना आयुक्त ‘डब्ल्यू. डब्ल्यू. एम. यीट्स’ ने कहा था कि जनगणना एक बड़ी, बेहद मज़बूत अवधारणा है लेकिन विशेष जाँच के लिये यह एक अनुपयुक्त साधन है।
  • सामाजिक-आर्थिक और जातिगत जनगणना (SECC):
    • वर्ष 1931 के बाद वर्ष 2011 में इसे पहली बार आयोजित किया गया था।
    • SECC का आशय ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में प्रत्येक भारतीय परिवार की निम्नलिखित स्थितियों के बारे में पता करना है-
      • आर्थिक स्थिति पता करना ताकि केंद्र और राज्य के अधिकारियों को वंचित वर्गों के क्रमचयी और संचयी संकेतकों की एक शृंखला प्राप्त करने तथा उन्हें इसमें शामिल करने की अनुमति दी जा सके, जिसका उपयोग प्रत्येक प्राधिकरण द्वारा एक गरीब या वंचित व्यक्ति को परिभाषित करने के लिये किया जा सकता है।
      • इसका अर्थ प्रत्येक व्यक्ति से उसका विशिष्ट जातिगत नाम पूछना है, जिससे सरकार को यह पुनर्मूल्यांकन करने में आसानी हो कि कौन से जाति समूह आर्थिक रूप से सबसे खराब स्थिति में थे और कौन बेहतर थे।
    • SECC में व्यापक स्तर पर ‘असमानताओं के मानचित्रण’ की जानकारी देने की क्षमता है।
  • जनगणना और SECC के बीच अंतर:
    • जनगणना भारतीय आबादी का एक समग्र चित्र प्रस्तुत करती है, जबकि SECC राज्य द्वारा सहायता के योग्य लाभार्थियों की पहचान करने का एक उपाय/साधन है।
    • चूँकि जनगणना, वर्ष 1948 के जनगणना अधिनियम के अंतर्गत आती है, इसलिये सभी आँकड़ों को गोपनीय माना जाता है, जबकि SECC की वेबसाइट के अनुसार, “SECC में दी गई सभी व्यक्तिगत जानकारी का उपयोग कर सरकारी विभाग परिवारों को लाभ पहुँचाने और/या प्रतिबंधित करने के लिये स्वतंत्र हैं।

आगे की राह:

  • हालाँकि SECC की अपनी बड़ी चिंताएँ हैं, लेकिन जनगणना में एकत्रित डेटा को राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण जैसे अन्य बड़े डेटासेट से जोड़ने और समन्वयित करने से सरकारों को कई सामाजिक-आर्थिक लक्ष्यों को प्राप्त करने में मदद मिल सकती है।
  • इसके अतिरिक्त जनगणना से स्वतंत्र/भिन्न मुद्दे पर जनसंख्या में मौजूद सभी संप्रदायों और उपजातियों को स्थापित करने के लिये राज्य और ज़िला स्तर पर प्रारंभिक सामाजिक-मानवशास्त्रीय अध्ययन किया जा सकता है।
  • जाति आधारित जनगणना एक जातिविहीन समाज के लक्ष्य के साथ बेहतर गठबंधन प्रतिस्थापित नहीं सकती है, लेकिन यह समाज में असमानताओं को दूर करने के साधन के रूप में काम कर सकती है। 

स्रोत: द हिंदू

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